गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

गज़ल

रखते नहीं हैं बैर किसी आदमी से हम,
फिर भी हैं अपने शहर में एक अजनवी से हम,
देखा हैं जलते जबसे गरीबों का आशियाँ,
डरते हैं हर चिराग की अब रोशनी से हम,
हम बोलते नहीं हैं तो समझे न बेजुबां है,
अपने घर की बात, कहें क्यों किसी से हम,
तेरी ख़ुशी का आज भी इतना ख्याल हैं,
लेते नहीं है साँस भी अपनी ख़ुशी से हम,
या तो हमारी नजरों का सारा कसूर है,
या दूर हो गए हैं, बहुत रोशनी से हम.

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